जुर्रत का जंगल
फ़रिदून शहरयार की नज़्म
डरे सहमे हिरन को
कुछ भेड़ियों ने
नोचने की कोशिश
क्या खूब की
बेनियाज़ शेर
अपनी हिकमत
से मूह मोड़ कर
झुके हुए ज़मीर का
बोझ लिए
दूर चला गया
चूटियों की फ़ौज
पहाड़ सा जोश लिए
आगे बढ़ी
लड़ी जी जान से
दरिंदों के जिस्म
में ज़हर था
नुकीले दांतो में
ख़ून की हवस
सांसों में
नफ़रत की बदबू
ज़र्द नदी कांप उट्ठी
जुर्रत के जंगल में
कुछ ऐसा हमने देखा है
शेरों के माथे पर पसीना है
जीत की ख़्वाहिश
मासूम सा ख़्वाब
लहू रगों में बेहिसाब
मौत की परवाह से बेपरवाह अब
इंकलाब में ग़ज़ब का नशा है
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