बराबरी का परचम
फ़रीदूं शहरयार की नज़्म
अम्मी की परेशानी
कुछ दस्तावेज़ पुराने
पहचान की शिनाख़्त
वफ़ादारी का सबूत
कितना समझाया
कितना बहकाया
मां का दिल है
बेचैन है
मुरझाया सा है
एक और मां का फ़ोन आया
"यासिर को फ़ोन करते रहना," उन्होंने कहा
आवाज़ में गुज़ारिश
सांसों में मायूसी
अपने जाने के बाद भी
घोंसले को आबाद रखने की
पुरज़ोर कोशिश
इंशा को में भी तो
हर रोज़ तलख़ीन
करता रहता हूं
एक बेहतर समाज
में मुस्कुराए वो
आज़ादी जहां हक़ हो
भीख की गुहार नहीं
बराबरी का परचम
जहां पुरसरार बुलंद हो
वहीं सांस ले
मेरी बच्ची
मैं चाहे नफ़रत की आंधी में
फ़ना हो जाऊं
कोई बात नहीं
Beautiful words.
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