पागलों की बस्ती
फरिदूं शहरयार की नज़्म
कोई हवा की वुसअतों को
कैद कर सके
ऐसा कभी हुआ है क्या
कोई खुशबू की हदों को
एक तंग दायरे में
महदूद कर सके
दीवानापन नहीं तो क्या है ये
मौसिखी के मिज़ाज पर
अदाओं के रिवाज पर
हिजाब कोई डाल सके
सोचा भी कैसे ये
ये फरमान तो नाजायज़ है
नासाज़ हैं ये सिलवटें
समाज पर कलंक है
भद्दे से दाग़ ये
पागलों की इस बस्ती में
शोर है अजीब सा
अपनी ही घुट्ती सांसों में
हसरतों के सिसकने के
चन्द लम्हे बाक़ी है
ख्वाबों के बीच की ये
दीवार बहुत ऊंची है
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