Monday, October 21, 2019

पागलों की बस्ती

पागलों की बस्ती 
फरिदूं शहरयार की नज़्म 

कोई हवा की वुसअतों को
कैद कर सके 
ऐसा कभी हुआ है क्या
कोई खुशबू की हदों को
एक तंग दायरे में 
महदूद कर सके 
दीवानापन नहीं तो क्या है ये
मौसिखी के मिज़ाज पर
अदाओं के रिवाज पर 
हिजाब कोई डाल सके 
सोचा भी कैसे ये
ये फरमान तो नाजायज़ है
नासाज़ हैं ये सिलवटें 
समाज पर कलंक है
भद्दे से दाग़ ये
पागलों की इस बस्ती में
शोर है अजीब सा 
अपनी ही घुट्ती सांसों में
हसरतों के सिसकने के 
चन्द लम्हे बाक़ी है
ख्वाबों के बीच की ये
दीवार बहुत ऊंची है

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